Friday, April 9, 2010



भूमंडल पर केवल भारतवर्ष एक ऐसा राष्ट्र है जहां सैंकड़ों वर्ष के निरंतर आघात के बाद आज भी हिंदू सभ्यता का प्रवाह अपने मूल रूप में जीवंत है। यह पृथ्वी पर हिंदुओं की आदि काल से सर्वमान्य पुण्य भूमि है। देश बंटा, हिंदू घटा, फिर भी अवशिष्ट राष्ट्र में हिंदू समाज प्रतिरोध की शक्ति बचाए हुए है। जब हिंदू समाज लगातार आक्रमणों का शिकार होता रहा तब क्या विभाजित देश में उसे अपनी परंपराओं और संस्कृतिक, धार्मिक आस्थाओं के रक्षण का अधिकार न

हीं होना चाहिए? क्या हजार वर्ष के प्रतिरोध का प्रतिफल यह नहीं होना चाहिए कि भारत की राजनीति प्रथमतया राष्ट्रीय सभ्यता के मूल तत्वों एवं उसके घटकों की रक्षा हेतु सिद्ध हो? इस सभ्यतामूलक राजनीतिक प्रवाह के अन्यतम व्याख्याता पं. दीनदयाल

उपाध्याय थे, जिनकी सिर्फ 52 वर्ष की आयु में 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय के पास रेलगाड़ी में प्रवास करते हुए हत्या कर दी ग

ई थी। उनका

कहना था, पश्चिम के अर्थ में, सेक्युलर स्टेट का अर्थ लौकिक राज्य ही लगाया जा सकता है, किंतु भारतीय जनता धर्म-राज्य या राम-राज्य की भूखी है और वह केवल लौकिक उन्नति में ही संतोष नहीं कर सकती। भारतीयता की स्थापना भी केवल एकांगी उन्नति से नहीं हो सकती, क्योंकि हमने लौकिक और पारलौकिक उन्नति को एक दूसरे का पूरक ही नहीं, एक दूसरे से अभिन्न माना है। पारलौकिक उन्नति के क्षेत्र में राज्य की ओर से किसी एक मत की कल्पना अनुचित होगी। उसके द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न करना होगा जिसमें सभी मत बढ़ सकें तथा एकं सद्विप्रा: बहुधा वदंति के सिद्धांत का पालन कर सकें। विडंबना है कि आज अधिकांश राजनीतिक दल, भारतीय होते हुए भी इस राष्ट्र की मूल सभ्यता के प्रवाह से न केवल कट गए हैं, बल्कि अपने तात्कालिक राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उसके स्वरूप पर आघात करने से संकोच नहीं करते। कश्मीर में सौ से अधिक प्राचीन मंदिरों का ध्वंस, राममंदिर निर्माण के लिए सर्वदलीय सहमति का अभाव, रामसेतु भंजन के लिए सक्रिय सत्ता का राम के अस्तित्व से इनकार, हिंदुओं के मतांतरण पर मौन और हिंदू संवेदनाओं के विषय जैसे गोहत्या पर रोक के बजाय अहिंदू वर्ग को हिंदू हितों की कीमत पर प्रोत्साहन दास मानसिकता के द्योतक हैं। दीनदयाल उपाध्याय इस मानसिकता के विरूद्ध राष्ट्रीयता का घोष बने। उनका कहना था, हमारी आत्मा ने अंग्रेजी राज्य के प्रति विद्रोह केवल इसलिए नहीं किया कि दिल्ली में बैठकर राज्य करने वाला एक अंग्रेज था, अपितु इसलिए भी कि हमारे जीवन की गति में विदेशी पद्धतियां और रीति-रिवाज, विदेशी दृष्टिकोण और आदर्श अड़ंगा लगा रहे थे, हमारे संपूर्ण वातावरण को दूषित कर रहे थे, हमारे लिए सांस लेना भी दूभर हो गया था। इस राजनीति के उत्तराधिकारी अटल बिहारी वाजपेयी बने। उनके मन में दीनदयाल जी के प्रति सदा भक्ति भाव दिखा। पां†जन्य में उन्हें भाऊराव देवरस और दीनदयाल जी ही लाए थे। हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय तथा गगन में लहराता है भगवा हमारा जैसे प्रसिद्ध गीतों की रचना कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरित प्रखर सभ्यतामूलक राष्ट्रीयता का वही प्रवाह अटल जी ने आगे बढ़ाया जो उनको दीनदयाल जी से मिला था। संघ संस्थापक डा. हेडगेवार का स्मरण करते हुए अटल जी का एक प्रसिद्ध गीत आज भी सरसंघचालक श्री सुदर्शन बड़ी तन्मयता से सुनाते हैं। इसकी प्रथम पंक्ति है: केशव के आजीवन तप की, यह पवित्रतम धारा/ साठ सहस ही नहीं तरेगा इससे भारत सारा! छह वर्ष के वाजपेयी राज में सैन्य शक्ति संव‌र्द्धन, ढ़ांचागत सुविधाओं का असाधारण सृजन और ग्रामीण विकास के क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित हुए। उन्होंने उपाध्याय जी की जन्मस्थली नगला चंद्रभान में ग्रामीण विकास के नए प्रयोगों को प्रोत्साहित किया। इस परिदृश्य में वर्तमान दलों को देखें तो क्या भाजपा या वाम दलों के अतिरिक्त किसी अन्य दल की कोई वैचारिक निष्ठा कही जा सकती है? केवल व्यक्ति केंद्रित राजनीति का निजी अभीप्साओं के लिए इस प्रकार उपयोग करना जैसे कोई व्यापारी किसी उद्यम में मुनाफे की लालसा से पूंजी निवेश करे, वैसे ही राजनीति में धन लगाकर धन कमाने का चलन बढ़ चला है। जब तक भारत का मन सुरक्षित रहा, बाहरी आक्रमणों को हमने अपनी काया पर झेला और भारतीय जनता को स्वत्व रक्षा के लिए सन्नद्ध किया। अब यदि मन ही धन के प्रभाव में बदल जाए, वह रामचरित मानस में शक्ति का स्रोत ढूंढ़ने के बजाय पब-संस्कृति में स्त्री-स्वातं˜य का दर्शन करने लगे तो भारतीय काया को प्रतिरोध हेतु प्रेरित कौन करेगा? भाजपा जैसे दल पर चुनौती केवल उन अभारतीय तत्वों को ही परास्त करने की नहीं है जो एक विद्रूप सेक्युलरवाद के नाम पर भारत के मूल अधिष्ठान पर चोट कर रहे हैं, बल्कि उसे सभ्यता के प्रवाह को संरक्षित करने वाली विचार केंद्रित भारतीय सत्ता स्थापित करनी है। आज भाजपा जिन मूल्यों को लेकर यहां तक पहुंची है उसके पीछे सैकड़ों कार्यकर्ताओं का बलिदान रहा है। वह जिन दो महापुरुषों को प्रेरणास्रोत मानती है उन दोनों का जीवन के उस बिंदु पर हौतात्म्य हुआ जब वे श्रेष्ठतम उत्कर्ष की ओर बढ़ रहे थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय दोनों ही 52 वर्ष की आयु में अकाल मृत्यु का शिकार हुए। जम्मू कश्मीर में तिरंगा लहराने से लेकर अयोध्या और केरल तक दो सौ से अधिक कार्यकर्ता केवल अपनी हिंदुत्वनिष्ठ विचारधारा के कारण मार डाले गए हंै। भाजपा के सत्ता की ओर बढ़ते कदम इन शहीदों के बलिदान से शक्ति पाते हैं। भारतीय राजनीति के इस जंगल में जहां व्यक्ति ही दल बन गया है, केवल कार्यकर्ताओं का बलिदान और संगठनहिताय-तप ही भाजपा को विजय प्राप्त करने का मार्ग दिखा सकता है। वरना इस दौर में राजनीति का अर्थ ही एक दूसरे को गिराना, हतबल करना और खुद सीढ़ी चढ़ने की कोशिश बन गया है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)